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चाँदनी महल (परियों का आस्‍ताना, डेरा)



मेहरबान अली कैरानवी (संवाद दाताः राष्ट्रीय सहारा हिन्‍दी ) ने पुस्‍तक 'कैराना कल और आज' के अपने लेख में लिखा है कि
चाँदनी महल
कैरानाः शामली कस्बे के बीच, भूरा कंडेला गांवों के राजबाहे की पटरी के निकट प्रसिद्ध चाँदनी महल (परियों का आस्‍ताना, आस्‍थाना,डेरा) आज वीरान होकर अपनी दूरदशा पर तो आंसु बहा रहा है लेकिन सैंकडों बरसों के बाद आज भी यहाँ पहुँचने वाले अक़ीदतमंदों को फेज़याब कर रहा है।
अकीदतमंदों का कहना है कि यहाँ जो भी सच्चे मन से आकर दरूदो पाक-फातिहा आदि कलाम पढ़ अल्लाह से इन बुजुर्गों के वसीले से दुआएं मांगता है अल्लाह उनकी मुराद ज़रूर पूरी करते हैं।
मालूम हुआ कि रात के समय में हर जुमेरात एवं पीर को यहां परियों एवं नेक रूहों की रूहानी मजलिसें भी होती हैं। इस लिए इसे परियों का डेरा भी कहा जाता है। में खुद भी यहां से फेजयाब हो चुका हूँ।


उमर कैरानवी (बायें)
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परियों की बातें बहुत पसंद की गई, अधिकतर यह भी जानना चाहते थे यह कैराना में किधर है, कब बना आदि, इन सब के लिए अच्‍छा होगा मेहरबान कैरानवी से कुछ परियों की बातें की जायें

Mobile: ०९८३७५६४०१३



news with thanks
http://www.starnewsagency.in/
मराठी समाचार पत्र 'उद्याचा मराठवाडा'

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thanks mehban kairanvi .




Mr. Aslam Siddiqui Kairanvi (Ex-Deputy Managing Director, National Bank of Pakistan)



Mr. Aslam Siddiqui Kairanvi (Ex-Deputy Managing Director, National Bank of Pakistan)

Profile: Mr. Aslam Siddiqui was born in 1915 in Kairana. He was the second son of Mrs. & Mr. Mukrim Siddiqui. His primary schooling was done in the English Middle School, Kairana and afterwards he moved to Jodhpur for further studies. He passed grade eighth examination from Oswal Middle School, Mahamandir, grade tenth from Darbar High School and grade twelfth from Jaswant College, Jodhpur. In July 1935, He joined Allahabad University as a student of Faculty of Commerce and lived there as a resident in famous Hostel Holland Hall's room no. 61 in the proximity of Jawahar Lal Nehru's ancestral home Anand Bhawan. At that time Anand Bhawan and Swaraj Bhawan were the hub of political activities of Indian Freedom Fighters. He graduated from Allahabad University in 1937 and was selected for U.P. Local Fund Account Service by Public Service Commision in the same year. As an auditor he travelled throughout U.P. for nine years. He resigned from Government service in 1946 and joined Habib Bank Limited in Bombay as Selective Service Officer. At the time of partition he was the manager of the Chandni Chowk branch of Habib Bank in Delhi. The same time he moved to Pakistan and adopted it as his utopia. He held senior positions as Deputy Managing Director, National Bank of Pakistan and the Industrial Development Bank of Pakistan. In 1967 he was appointed Managing Director of Commerce bank of Pakistan Ltd. and held this position until nationalization of banks in January 1974 by the Zulfi Bhutto Government. In May 1974 he migrated to Hong Kong and joined the Bank of Credit and Commerce International (BCCI) as its Chief Representative for the Far East and South-east Asia and Managing Director BCCI Finance International Limited, Hong Kong. He resigned from these positions in March 1982 and set up his own business in Hong Kong as a financial consultant and security and exchange trader. He has written an autobiography entitled, "Life and Times of a Pakistani Citizen" published by Ferozsons Private Limited Lahore. In this book he has given vivid description of Kairana and the princely state of Marwar Jodhpur during his childhood days.
( Thanks: Faisal Ansari kairanvi)

M.L.A. Kairana record

thanks: www.muzaffarnagar.nic.in पर 1999तक का ही रिकार्ड था

VIDHAN SABHA (M.L.A.) Kairana Record:
VIDHAN SABHA ELECTION -
VIDHAN SABHA - YEAR 1952
KAIRANA NORTH, SHRI KESHAV GUPT, CONGRESS
KAIRANA SOUTH, SHRI VIRENDRA VERMA, SHAMLI, CONGRESS
VIDHANSABHA YEAR-1957
SHRI VIRENDRA VERMA, SHAMLI, CONGRESS
VIDHAN SABHA YEAR-1962
SHRI CHANDAN SINGH, KHERI KARMU, INDEPENDENT
VIDHANSABHA YEAR-1967
SHRI SHAFFAKAT JUNG,KANDHLA, CONGRESS
VIDHANSABHA YEAR-1969 (MIDTERM)
SHRI CHANDER BHAN KAIRANA, B.K.D.
VIDHANSABHA YEAR-1974
SHRI HUKUM SINGH, KAIRANA,CONGRESS
VIDHANSABHA YEAR-1977
SHRI BASHIR AHMAD, KAIRANA, JANTA PARTY
VIDHANSABHA YEAR-1980
SHRI HUKUM SINGH,KAIRANA, JANTA (CHARAN SINGH)
VIDHANSABHA YEAR-1985
SHRI HUKUM SINGH,MUZAFFAR NAGAR,CONGRESS
VIDHANSABHA YEAR-1989
SHRI RAJESHWAR BANSAL, SHAMLI, INDEPENDENT
VIDHAN SABHA YEAR-1991
SHRI MUNAWWAR HASAN KAIRANA, JANTA DAL
VIDHANSABHA YEAR-1993
SHRI MUNAWWAR HASAN, KAIRANA, , JANTA DAL
VIDHANSABHA YEAR-1996
SHRI HUKUM SINGH, MUZAFFARNAGAR5, BJP
VIDHANSABHA YEAR-1999
SHRI HUKUM SINGH, MUZAFFAR NAGAR, BJP
VIDHANSABHA YEAR-2002
SHRI HUKUM SINGH, MUZAFFAR NAGAR, BJP
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Kairna. M.P. (Update 2013) Tabassum Hasan, BSP MP, Kairana



Kairna. M.L.A. (Update 2013)

SRI.HUKUM SINGH




कौन सांसद कब विजय रहा

तरतीबः उमर कैरानवी

कौन सांसद कब विजय रहा

पंकज त्रिपाठी
अमर उजाला, 30 मार्च 2004, पृष्ठ 13,

निर्णायक होते हैं जाट और मुस्लिम जीत में जाट
और हार में मुस्लिम मतों की भूमिका महत्वपूर्ण
वैसे तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में जाटों का ही सिक्का चला है। चाहे वह मतदाता के रूप में हों या फिर प्रत्याशी के रूप में अथवा दलों के नेतृत्व की कमान संभालने वालों के रूप में। हर मोड पर जाट वोटरों के ठाठ यह हैं कि अब तक के 13 लोकसभा चुनाओं में एकतरफा मतदान ने उनके मनपसंद नेता को जीत का सेहरा बंधावाया है। किन्तु इस दिलचस्प तथ्य को भी मानना पडेगा कि दूसरे नम्बर पर मुस्लिमों का ही कब्जा रहा है। हर जीत में जाट तो विरोधियों की हार में मुस्लिमों का बडा हाथ रहा है।
कैराना लोकसभा सीट का गणित सीधा होते हुए भी बडा उलझा हुआ है। जाटों का पूर्ण समर्थन आसान जीत के रूप मे ंसामने आता है, तो मुस्लिमों का एकतरफा मतदान भारी मुशकिलें खडी कर देता है। जीत न सही, लेकिन अपने लक्ष्य यानी दूसरे को हराने में मुस्लिम मतों की निणायक भूमिका रही है। यह भी दिलचस्प है कि जब दो मुस्लिम लडे, तो वोट भी बंटे और मुसलमानों की उदासीनता का सीधे असर मतदान प्रतिशत पर पडा।
कैराना सीट पर वर्ष 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी महावीर त्यागी को जाटों के एकतरफा मतदान से आधे से अधिक 63.7 प्रतिशत मत मिले थे, वहीं जनसंघ के प्रत्याशी जे आर गोयल को मात्र 13.8 प्रतिशत वोट मिले। इसमें मुस्लिम मतों की रूचि नही रही, तभी निर्दलीय प्रत्याशी गोयल को बराबर वोट हासिल हुए थे। ()नोटः www.muzaffarnagar.nic.in में सहारनपुर-मुज़फ्फर नगर नार्थ अजीत प्रसाद जैन एवं मुज़फ्फरनगर साउथ हीरा बल्भ त्रिपाठी लिखा है .....स.) 1957 के चुनाव में सुंदरलाल को 21.8 तथा अजीत प्रसाद जैन को 17.3 प्रतिशत मत मिले थे। इस चुनाव में भी जाट वोटों ने जीत सुनिश्चित की थी। मुस्लिमों ने मतदान में खास रूचि नहीं दिखाई थी। वर्ष 1962 का चुनाव जाटों का चुनौती देने वाला रहा। ठाकुर यशपाल सिंहने निर्दलिय चुनाव लडा और कांगे्रस के अजीत प्रसाद जैन को बुरी तरह हराया। उन्हें 48.4 प्रतिशत वोट मिले थे। जैन को महज 29.2 प्रतिशत वोट मिले थे। यहां 66.5 प्रतिशत अब तक का सर्वाधिक मत प्रतिशत रहा। 1967 के चुनाव में मुस्लिमों ने पहली बार जमकर मतदान किया। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के गैयूर अली खां को 26.4 प्रतिशत वोट मिले। अजीत प्रसाद जैन कांग्रेस को लगातार तीसरी बार हारने से नहीं बचा पाए। जबकि उन्हें 25.9 प्रतिश वोट हासिल हुए थे।()नोटः www.muzaffarnagar.nic.in में देख सकते हैं में 1971 शफक्कत जंग...लिखा है...स.) वर्ष 1977 में जाटों ने भारतीय लोकदल के चंदन सिंह को 64.6 प्रतिशत वोट दिलाए, वहीं मुस्लिम मत पाकर भी शफक्कत जंग कांगे्रस 25.5 प्रतिशत वोट पर सिमट गए। 1980 में जाट वोट फिर हावी रहे और गायत्री देवी ने 48.8 प्रतिशत वोट लेकर कांग्रेस के नारायण सिंह को 34.6 प्रतिशत मतों पर समेट दिया था। वर्ष 1984 में अख्तर हसन ने एकतरफा मुस्लिम वोट बटौरे और लोकदल के श्याम सिंह के मुकाबले 53 प्रतिशत मत हासिल किए। सिंह को 30.9 प्रतिशत वोट मिले थे। मुस्लिमों का जोश इस बार जाट वोट बैंक पर भारी पडा। वर्ष 1989 और 1991 मेें जाटों ने हरपाल पंवार के सिर जीत का सेहरा बांधा। उन्हें 89 में कांग्रेस के बशीर अहमद के मुकाबले 58.9 प्रतिशत वोटों की धमाकेदार जीत मिली।1991 में भाजपा के उदयवीर सिंह पेलखा को 40.1 प्रतिशत मतों से संतोष करना पडा था। यहां जाट वोटों पर खासी मशक्कत की गई, लेकिन वोट पंवार को ही मिले। 1996 में एक बार फिर मुस्लिम मतों का ध््राुवीकरण हुआ और मुनव्वर हसन की कडी टक्कर मिली क्योंकि उदयवीर सिंह ने जाटों को लुभाया था। यहां सपा प्रत्याशी हसन को 32.75 तथा भाजपा के उदयवीर को 30.97 प्रतिशत मत मिले थे। इस चुनाव में मुस्लिम मत बंट गया तथा बसपा के जिल्ले हैदर को 75 हजार मत मिले। वर्ष 1998 के चुनाव में भाजपा के वीरेंद्र वर्मा ने जाटों का एकतरफा समर्थन हासिल कर मुनव्वर हसन को 62.185 मतों से हराया था। जाट ध््राुवीकरण मुस्लिम वोटों पर हावी रहा।1999 में लोकदल के अमीर आलम कांग्रेस के साथ मिलकर लडे तथा निरंजन मलिक जाट प्रत्याशी होने के बावजूद दूसरे नम्बर पर रहे। () 2004 में जाट और मुस्लिम ने अनुराधा चैधरी को विजय दिलाई। कैराना में अनुराधा को चैधरी मुनव्वर हसन का सहयोग मिला और मुज़फ्फर नगर सीट पर जाटों ने चैधरी मुनव्वर हसन को सहयोग देकर विजय दिलाई।..स.()
()कैराना और मुज़फ्फर नगर का डण्च्ण् रिकार्ड www.muzaffarnagar.nic.in में देख सकते हैं

Book: Izhar -ul- Haq By: M Rahmatullah Kairanvi



Book: Izhar -ul- Haq By: M Rahmatullah Kairanvi
Published in London ( www.taha.co.uk )
English Translation of: Izhar -ul- Haq The Truth Revealed Parts 1-2 and 3 By M Rahmatullah Kairanvi Paperback 474 Pages Ref: 139 ti Price: £9.95 Originally written in Arabic under the Title Izhar ul Haq by the distinguished 19th century Indian Scholar Maulana Rahmatullah Kairanvi and appeared in 1864. Well before the now famous Muslim-Christian Debates by Ahmad Deedat of South Africa Maulana Rahmatullah was challenging the Christian offensive against Islam in British India. In a debate which took place in January 1854, in Akbarabad in the City of Agra. The Rev C C P Founder (who had written a book in Urdu to cast doubts into the minds of the Muslim) admitted that there were alterations in the Bible in seven or Eight places to which the Maulana commented "If any alteration is proved to have been perpetrated in a particular text, it is considered null and void and invalidated. This and other debates proving Islam to be the true religion was part of the trigger which lead to the Brutal British aggression against the Muslims of India in 1857 in which thousands of Ulemah were killed, Maulana Rahmatullah was at the top of the list, but Allah saved him and took him to Makkah where he established The Madrasa Saulatia.

Jamil Naqsh-London (Pakistan's leading artist)



Jamil Naqsh (Pakistan's leading artists):
Kairanvi His persona is reclusive, elusive, almost solitary and his work - it is exclusive, abstruse and almost rarefied. Jamil Naqsh, an enigmatic artist, lives his life on his own terms, calls his own shots, does exactly what he wants to do and in doing so maintains his position as one of Pakistan's leading artists. A brilliant contemporary painter, his success story is an amalgam of immense talent, creativity, labour, single-mindedness and of course strategy. The Naqsh mystique has been engineered and it is very much there. A ploy it may be but it is a charming one at that, for it adds that something extra to his artistic genius, shifting his work to a much higher plane. This success story unfolded in the peaceable, romantic environs of distant Kairana in the U.P. Province of India, where the young artist was born in 1939, in a cultured Muslim zamindar family. Young Jamil was nurtured in a climate of creativity, where artistic, musical and literary pursuits were freely practiced. His childhood memories are entwined amidst family pets - horses, cats, pigeons and a favourite goat - kite flying, chess, shikaar, Persian and Urdu poetry, classical music together with prayers and fasting. At the age of nine, in 1947, the trauma of displacement that came with partition hit the growing child harder than most others. Having lost his mother when he was five, Jamil migrated to Pakistan with his elder siblings, but his father remained behind - never to meet again. Bereft of parental moorings, unsettled Jamil trekked back home in his early teens, perhaps to recapture a lost childhood - but it was not to be. For two years he journeyed through Chittagong to Calcutta, Khatmandu to Colombo, Peshawar to Karachi. In 1953 his journey ended in Lahore, where he joined the Mayo School of Arts & Crafts. Mayo School of Arts & Crafts. As a student of Mayo, the young Jamil got his first taste of modern art. Pioneer modernist Shakir Ali had just arrived in Lahore after his sojourn abroad. His concepts on rudiments of contemporary art were a breath of fresh air for the young artists in the making, Jamil Naqsh including. However, keeping in mind the traditional ambience of Kairana, the artist's childhood home, his love for the classical and the oriental in arts was a very natural preference. At the Mayo school he was introduced to the art of miniature painting courtesy, the renowned Ustad Haji Sheriff. Soon Jamil Naqsh abandoned his study courses at Mayo to work full time with Ustad Sheriff. Thus began his grounding in this discipline. Working from morning to dusk he imbibed technique, methodology, and unique intricacies peculiar to Mughal miniature painting. At this juncture, developments in modern art in Pakistan were rapid, popular and eagerly accepted. The synthesis of abstraction and finesse of miniature apparent in Jamil's work now probably had its origin in that early educative phase when he was learning in a climate of twin exposures. Album painting and non-objective art are mutually contradictory but Jamil Naqsh borrowed the best of both to create his own aesthetic vocabulary, which then became his signature style.
thanks: www.getpakistan.com

King Jahangir wrote about "Bagh & Talab kairana"



King Jahangir wrote about "Bagh & Talab" :
On, Sunday, the 16th, I marched from delhi, and on Friday the 21st, halted in the pargana of Kairana, This pargana is the native place of Muqarrab K. Its climate is equable and its soil good. . Muqarrab had made buildings and gardens there. As I had 'often heard praise of his garden, I wished much to see it. On Saturday, the 22nd, I and my ladies were much pleased in going round it Truly, it is a very fine and enjoyable garden. Within a masonry (pukhta, pucca) wall, flower-beds have been laid out to the extent of 140 bighas. In the middle of the garden he has constructed a pond, in length 220 yards, and in breadth 200 yards. In the middle of the pond is a miih-tiib terrace (for use in moonlight) 22 yardssquare.There is no kind of tree belonging to a warm or cold climate that is not to be found in it. Of fruit-bearing trees belonging to Persia I saw green pistachio-trees, and .cypresses of graceful form, such as I have never seen before. I ordered the cypresses to be counted, and they came to 300. All round the pond suitable buildings have been begun and are in progress.(Tuzuk-i-Jahangiri or memoirs of Jahangir,Tanslated by Alexander Rogers, Atlantic publisher, Drya ganj, New delhi-2, page112, v2)

नज़्म कैराना के अनमोल हीरे

लेखकः अब्दुस समी कुरैशी उर्फ गालिब कैरानवी
हिन्दी रूपांतर: उमर कैरानवी

कस्बा यह राजा किरण के नाम से मन्सूब है
नाम कैराना है इसका नाम भी खूब है
एक मुकर्रब खाँ हुये इस शहर में ऐसे अलीम
बादशाही दौर में थे बादशाही वह हकीम
बाद में वह उस हकूमत में रहे बनकर वज़ीर
उनका सानी न था कोई आदमी थे बे नज़ीर
उस हवेली में अभी वह आब तक मौजूद है
है तो बोसीदा मगर तालाब तक मौजूद है
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।
इस ज़मीं पर आदमी होते हैं ऐसे बाकमाल
जंगे आज़ादे में जिनकी लोग देते हैं मिसाल
आप बेशक मौलवी थे रहमतुल्लाह नाम था
सबको आज़ादी मिले उनका यही पैगाम था
जब हकूमत ने गिरफ्तारी का आर्डर कर दिया
आपने जाकर मदरसा मक़्क़ा में कायम किया
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।
आप दरिया इल्म के थे नाम था उनका वहीद
और तखल्लुस था ज़माँ कुछ भी नहीं इसमें बईद
उनकी मेहनत का नतीजा है जहाँ में यह किताब
अरबी लोगों के लिए जो है मुकम्मल कामयाब
लफ़्ज़ लगता है हर एक जैसे कमल का फूल है
अरबी लोगों में लुगत उनकी बडी मक़बूल है
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।
एक अजब फनकार थे कैराना में अब्दुश शकूर
उनको सारंगी बजाने का जहाँ में था शऊर
आपने कुछ इस कला में काम ऐसे हैं किये
फिर हकूमत की तरफ से रूस वह भेजे गये
गज़ चलाने की जो देखी आपके जादूगरी
इस हकूमत ने नवाज़ा फिर पदम देकर श्री
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।
वह मुसव्विर है अजब और नाम है उसका जमील
नक़्श देखे जिसने उसके हो गया उसका खलील
वह बशर लन्दन में अपने काम पर मा‘मूर है
अपने फन में सारी दुनिया में बहुत मशहूर है
उनका आलीशान पाकिस्तान में है अपना घर
हाथ में कुदरत ने बख्शा है अजब उनके हुनर
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।
इल्म मोसीक़ी में सबसे आगे थे अब्दुल करीम
राग सारे जानते थे राग के थे वह हकीम
हैं बहुत शागिर्द उनके जिनके वह उस्ताद थे
जितने सुर हैं राग के सारे ही उनको याद थे
बुख्ल वह करते नहीं थे देखो अपने काम से
आज ‘‘कैराना घराना’’ है उन्हीं के नाम से
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।
सारी दुनिया जानती है नाम उसका है शबाब
नाम कैराना का उसने यॅूँ किया ऊँचा जनाब
वह पडोसी मुल्क को इस शहर की ही देन है
रूह उनकी इस ज़मीं के वास्ते बे चैन है
यूँ जहाँ से उसने अपनी जान पेहचान की
फिल्मी दुनिया में बसे वह जाके पाकिस्तान की
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।
इस सियासत में बशर अब एक ऐसा खो गया
सात पहले हैं अजूबे आठवाँ वह हो गया
एम. पी. वालिद है उसका, नाम है अख़्तर हसन
जिसके दम से फूटती है एक सियासत की किरण
नाम है उसका मुनव्वर दिल में ऐसी लगन
उमर में थोडी सी उसने देखे हैं चारों सदन
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।
इस तरक़्क़ी पर हुकुम सिंह की हमें भी नाज़ है
उनके अपने काम का सबसे अलग अन्दाज़ है
यू.पी. लेविल के रहे वह ऐसे काबिल मन्त्री
आगे पीछे देखे हमने रहते उनके सन्तरी
शहर का कालिज विजय सिंह उनके दिल का चैन है
हास्पिटल, सब्ज़ी मण्डी यह भी उनकी देन है
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।
चेयरमैनी कर गये वह शहर में ऐसी बशीर
नेक दिल इन्सान है वह आदमी है बेनज़ीर
शहर के लोगों में है अपना अलग उसका मुक़ाम
हर बशर को देखते ही पहले करते हैं सलाम
आदमी को इतनी इज़्ज़त यह भी कुदरत की है देन
तीस पैन्तीस साल कस्बे के रहे वह चेयरमैन
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।
रज़्मी है उनका तखल्लुस और मुज़फ्फर नाम है
शायरी में दर्स देना उनका पहला काम है
इस अदब की दुनिया में उनकी यही पहचान है
एक लम्हों की खता के नाम से दीवान है
वक़्त के हाकिम ने अपने घर बुलाया आपको
और बडे ऐज़ाज़ से उसने नवाज़ा आपको
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।
एक कैराना में कौसर और हैं आली मुकाम
शायरी में पुख्तगी है उनका ऊँचा है कलाम
दिल के जो अरमान थे उनके सभी पूरे हुये
उनके बेरूनी मुमालिक के कई दौरे हुये
सब नसीहत उनकी देखो रहती मेरे याद हंै
शायरी में देखो ‘ग़ालिब’ के वही उस्ताद हैं
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।
अब उमर कैरानवी करता है तुम से यह खिताब
उर्दू, हिन्दी और इंग्लिश में लिखा होगा जनाब
इस जहाँ में हर जगह यह जानकारी देखिये
आप इन्टरनेट पर मेहनत हमारी देखिये
सारी दुनिया को यहाँ से दे रहा हूँ सदा
अब उमर का मुद्दतों में ख्वाब पूरा हो गया
जिसने अपने शहर का रूतबा बढाया खूब है।
नाम से कैराना के वह शख़्सीयत मन्सूब है।

कस्बा कैराना शरीफ ( लेख मुन्शी मुनक्क़ा)

लेख कः मुन्शी मुनक्क़ा, शायर,फिल्मी गायक एवं कामेडियन
उर्दू कविता संग्रह ‘‘कड़वे बादाम’’ का एक लेख काट छाँट के पश्चात
हिन्दी रूपांतर: उमर कैरानवी

कस्बा कैराना शरीफ

न छेड़ ए हमनशीं प्रदेस में भूला सा अफसाना
मुझे पहरों रूलाता है मेरा घर मेरा कैराना
यह एक तारीखी कस्बा है। जिसकी तकरीबन पचास हज़ार की आबादी है। पानीपत की लडाई का जो मैदान मशहूर है। वह पानीपत और कस्बे की दरमियाना ज़मीन है। यहाँ के मशाहीर में से वज़ीर जहाँगीर नवाब मसऊद रह. उस्मानी उर्फ मुक़र्रबुल खाक़ान कैरानवी जो हज़रत मखदूम शैख जलालुद्दीन कबीरुल औलिया कलन्दर पानीपती रह. की औलाद में हैं। मज़ार मुबारक आपका पानीपत शरीफ हज़रत बू अलीशाह कलन्दर रह. के अहाते ही में बहुत शानदार बना हुआ है। कलन्दर साहब रह. का मज़ार मुबारक और उसमें कसौटी के सतून नवाब साहब ने ही बनवाये हैं कि यह कसौटी के सतून पहले नवाब साहब की बारादरी वाके कैराना ही में थे। नीज़ तख़्त ताऊस भी आपही का था जो जहाँँगीर ने तोहफतन खुद तलब कर लिया था। बाद में नादिरशाह दुर्रानी ईरान ले गया जो आज तक वहीं महफूज़ है। पिछले दिनों शहंशाह ईरान की ताजपोशी की रस्म इसी तख़्त पर अदा की गई।
दूसरे हज़रत मौलाना रहमतुल्लाह साहब उस्मानी मुहाजिर मक़क़ा जो इलम तकवा में लासानी थे और मदरसा सौलतिया मक्क़ा मुकर्रमा भी आपने क़ायम करके जिनकी ज़बान उनको अरबी पढाई। आज भी आपके पडपोते शेख मुहम्मद सलीम बहेसियत निगराॅ वहीं मुक़ीम हैं जो कि शाह की नज़रों में महबूब और मुअज़्ज़म हैं।
दरगाह शाह गरीबुल्लाह जिन्होंने औरंगजे़ब की मौजूदगी में कांटो पर कव्वाली सुनी थी कैराना में थे।
दूसरे बुजुर्गों के अलावा कैराना में एक ही ज़माने में तीन मुहम्मद इब्राहीम हुए हैं। तीनों बडे बुजुर्ग थे। पीरजी मुहम्मद इब्राहीम साहब उस्मानी की वजह से कैराना ‘‘कैराना शरीफ’’ मशहूर हुआ। आपकी दरगाह पर उर्स में पाकिस्तान और दूसरे मुल्कों से मेहमान आते हैं।
पीरजी इज़हार उस्मानी उर्फ आशिक़ कैरानवी पाकिस्तान के मशहूर शायर हैं।
दूसरे फनून के माहीरीन में सैयद इनायत हुसैन साहब जो हैदराबाद रियासत में तैराकी के मुकाबले में अन्तर राष्ट्रीय इनाम के मालिक थे। उनके बारे मशहूर है कि दरिया में तैरते हुए नाई से दाढ़ी बनवा लेते थे। निजाम की हकूमत के ज़माने तक आपके पोतों को पाँच सौ रूपये वज़ीफा हर महीने मिलता रहा।
पहलवान इरशाद अहमद ने 10 साल पहले 35 मिन्ट अकेले शेर से कुश्ती लडकर उसे मार डाला।
सैयद काले साहब को मुँह से तबला बजाने में इतनी महारत थी कि हाथ से तबला बजाने वाले हैरान थे।
गीतकारों का तो यहाँ अन्तर राष्ट्रीय शोहरत का मामला है। कैराना घराना मशहूर है यहाँ की राग रागनियाँ सबसे अलग और अच्छी मानी गईं। कैराना का नाम सुनकर बडे बडे गीतकार एअहतराम से कान पर हाथ रखते हैं, दुन्या-ए-संगीत ने आज तक इन सपूतों का जवाब पैदा नहीं किया।
बन्दे अली खाँ बीनकार जो वली सिफत इन्सान थे। बारा साल कलियर शरीफ में चिल्ला किया। आज भी जो बीनाकार दुनिया में मशहूर है उन्हीं का पोता और शागिर्द है।
अब्दुल करीम खाँ साहब जिनके रिकार्ड आज तक लोगों ने बेशकीमत समझकर रखे हुये हैं। अपनी यूरोप की यात्रा में मैंने 55रिकार्ड देखे और सुने। खाँ साहब ने पूना में कुछ शागिर्दों से मायूस होकर कह दिया कि कुत्ते गा सकते हैं मगर आपमें यह क्षमता नहीं है। फिर अब्दुल करीम खाँ ने दो कुत्तों को राग सिखा दिये जो बाकायदा प्रोग्राम पेश करते थे। एच. एम. वी. कम्पनी के ग्रामोफोन रिकार्ड पर जो कुत्ते को राग सुनते हुए दिखाया गया वह अब्दुल करीम खाँ के एज़ाज़ में ही है। भारत सरकार ने आल इण्डिया रेडियो देहली में विशेष रूप से बडी मूर्ती बनवाकर प्रवेश द्वार के करीब लगा रखी है।
बहरे वहीद खाँ आज भी राग रागनियों के वल्र्ड चेम्पियन अमीर अहमद खाँँ साहब साकिने लोहारी आप ही के शागिर्द हैं।
मौजूदा ज़माने में अब्दुश शकूर खान सारंगी नवाज़ को पिछले दिनों सरकार ने अपनी तरफ से रूस भेजा था।
उस्ताज फैयाज़ खाँ- मुम्बई, उस्ताद समद खाँँ साहब और शरीफ खाँ साहब लाखों में एक हैं भाई निज़ामुद्दीन, भाई इस्माईल, भाई नज़ीर बे बदल कव्वाल हैं।
हकीम तो यहाँ इतने अच्छे और अधिक हुये कि कस्बे का दूसरा नाम ही हकीमों वाला है।

नबिया पहलवान

उमर कैरानवी

‘‘कैराना मे 1910-50 ई. तक हल्के वजूद के नबिया पहलवान माली (बागबाँ) को मुखालिफ़ पहलवान आश्चर्य से देखता था लेकिन कुश्ती प्रारम्भ होने के कुछ क्षणों पश्चात वह चित और नबिया पहलवान का पैर उसकी छाती पर होता।’’ यह कहना है 90 वर्ष के बुजुर्ग हाफिज़्ा नानू साहब जोकि उस दौर में नौजवान थे और 70 वर्ष के सुलेमान साहब जिन्होंने नबिया का अंतिम दौर देखा है। अधिक जानकारी देते हुये यह बुजुर्ग बताते हैं कि नबिया लगभग 180 किलोग्राम रेत से भरी बोरी को 11 बार खास तरीके से उठाकर फैंकता था यह तरीक़ा मुखालिफ़ पहलवान पर आज़माता था जिससे मुखलिफ पहलवान तीसरी कोशिश तक सदैव चित हुआ। इसे पहलवानी ज़बान में पुटठी मारना कहा जाता है।
नबिया मौलवी फैज़ुल्लाह साहब (रह.) का मूरीद था जोकि कुश्ती के समय दरबार वाली मस्जिद में चहलक़दमी करते हुये रूहानी तरीक़े से (मानसिक तरंगों द्वारा) नबिया की रहनुमाई करते थे।
यह पहलवान अपनी ज़िन्दगी में एक बार हारा था। हुआ यूं कि मौलवी साहब नेे बुध के दिन कुश्ती लडने से मना किया था। बुध को कुछ लोगों ने बहला-फुसला कर छडियों के दंगल में कुश्ती करादी जो यह हार गया। यहां से छडियां गंगोह जाती थी वहां भेष बदलकर नबिया ने उससे कुश्ती का हाथ मिलाया क्यूॅकि पराजित से लम्बे समय तक कुश्ती नहीं लडी जाती थी इसलिये भेष बदलना पडा। उसे तीसरी पुटठी में चित कर दिया।
नबिया के पिता नत्थू पहलवान भी काफी मशहूर थे यह दोनों काफी समय तक एक ही दंगल में लडे। एक पहलवान जो पिता से बराबर रहा उसे पिता के मना करने के बावजूद रातों-रात उसके अपने शहर खेकडा में जाकर चित करके दम लिया।
दिल्ली में अंग्रेज़ वायसराय की बैगम के अखाडे का बडा भारी-भरकम पहलवान जो इसके हल्के वजूद के कारण लडने से इन्कार करता रहा को चित करने पर 150 चांदी के सिक्के बैगम से मिले जो अब 2007 में तीस हज़ार रूपये के बराबर हैं।
नत्थू पहलवान की इकलौती औलाद नबिया विवाहित तो था पर कोई औलाद न होसकी। दंगल ना होते तो यह पहलवान अपनी अच्छी आवाज़ में गा-गाकर शहतूत बेचता था।
छडियों के दंगल से पहले इस पहलवान को बिरादरी वालेे एक रूपया हर घर से देते थे उस समय एक रूपये का एक सेर घी आता था।
जनाब रियासत अली ‘‘ताबिश’’ साहब ने अपनी उपलब्ध उर्दू पुस्तक ‘‘हरीमे अदब’’ जिसमें लगभग 50 पृष्ठों में कैराना का इतिहास है अनीस पहलवान माली (बागबाँ) के ज़िक्र के साथ यह भी लिखा है कि नबिया पहलवान माली (बागबाँ) रूहानी विद्वान मौलवी फैज़ुल्लाह साहब (रह.) का मूरीद और अपने वक़्त का गामा था। 29.7.2007

नौ गजा , नवाब दरवाजा एवं पत्थर में बदला चोर

डा. तनवीर अहमद अल्वी द्वारा मुझे सुनाइर् गई बातें


नौ गजा , नवाब दरवाजा एवं पत्थर में बदला चोर
अहम यादगार बाला पीर जिसको लोग अब आमतोर से पीर बाला या नौ गज़ा पीर कह कर याद करते हैं। यह कैराना के कदीम मज़ारात में से है। ऐसे मुतादिद मज़ारात इस हल्के में हैं जो कैराना के आसपास कुछ दूसरे कस्बात पर मुश्तमिल है जिसमें नोगज़ा पीर कहलाने वाले कदीम बुजुर्ग दफन हैं। बाला मा‘सूम बच्चे को कहते हैं। इसलिए बाले मियाॅ के नाम से कई मकामात पर मज़ारात मौजूद है और इससे मुराद यह है कि साहिबे मज़ार ने बहुत थोडी उमर में जिहाद में शिरकत की और एक नुमायाॅ बल्के इमतियाज़ी किरदार अदा किया। ऐसे मज़ारात को नौ गज़ा भी कहते हैं। यह नौगज़ के नहीं हैं मगर एक ज़माने में यह दस्तूर था कि मरने वाले शहीद के झण्डे को उन्हीं के साथ दफन किया जाता था इसी वजह से निशाने कब्र लम्बा होता है।
कैराना के तारीखी मकामात में एक और अहम यादगार नवाब दरवाज़ा है। कभी इस के करीब 1935-40 के दरमियान एक बहुत मोटी कंकरीट की तेह भी नज़र आती थी। इसके एक तरफ शाहजी की मस्जिद है। नवाब दरवाज़ा अब टूट फूट गया लेकिन इसका ैजतनबजनतम बाकी है। इसमें एक तरफ कोई साहब रहने भी लगे हैं। नीचे की हिस्से में भडभूजे ने अपने बान बाॅटने का सामान रख छोडा है। इस तरह से इसे भी कारोबारी युनिट में बदल दिया गया और किसी ने इसकी हिफाज़त नहीं की कार्पोरेशन को भी खयाल नहीं आया कि इतनी बडी यादगार कितनी बुरी हालत में है।
इसके करीब में आगे बढकर वह जगह है जहाॅ हूर का ताज़िया रखा जाता है और उसके करीब एक ऐसा पक्की ईंट का अहाता जिसके अन्दर किसी बुजुर्ग की कब्र है। उससे मिला हुआ एक आडा भूरे रंग का पत्थर खडा है और इसके लिए कहा जाता है कि यह चोर है और इन बुजुर्ग की बददुआ से पत्थर में बदल गया है जबकि यह एक फर्ज़ी बात है और यह टुकडा दरअसल किसी कदीम इमारत का हिस्सा है। जो इस पत्थर से ता‘मीर की गई, इस पत्थर का एक और बडा सा टुकडा छोटे इमाम बाडे के दरवाजे के सामने ज़्ामीन में गडा हुआ है। इनके दरमियान कभी एक बडा महल था जो अपनी ऊॅची ऊॅची दीवारों की वजह से एक खास इमतियाज रखता था। इसका बडा सा फाटक अपनी मेहराब के साथ 1940-50 तक मौजूद था मगर महल के अन्दरूनी आसार शिकस्त व रेख्त का बुरी तरह शिकार थे। इनकी देखभाल का भी कोई इन्तज़ाम नहीं था। यह भी नवाब के अपने महलात में से एक महल था। एक और महल पत्थरों की मस्जिद से इधर हूर के ताजिये के चबूतरे से क़रीब वाके था। इसका दरवाज़ा जो दूसरे दरवाजों के मुकाबले में चैडा था 1935 तक बाकी था और बाकी इमारात की जगह इन छोटे मोटे मकानों ने ले ली थी जिस में चिडीमार रहते थे। यह दरअसल नवाब के अपने खानदान की रिहाईशगाहें थीं।

गदर 1857 शामली में जंग जीत लेना झोंपडी से old story मुहम्‍मद उमर कैरानवी

यहॉ आस पास के सभी कस्बों गाँवों का इतिहास महत्वपूर्ण है। थानाभवन के हाफिज़ ज़ामिन शहीद, कैराना के मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी जिन्हें मेमार-ए-मुजाहिद अर्थात यौद्धा श्रष्टा की उपाधि दी गयी का गदर में महत्वपूर्ण रोल रहा है कुछ दूरी पर देवबन्द, सहारनपुर और गंगोह के गदर नायकों पर बहुत सी पुस्तकें लिखी गई हैं।शाही दौर मैं कैराना का महत्व रहा तो अंग्रेज़ी शासनकाल में शामली की बहुत उन्नति हुई, शामली का उस समय इस क्षेत्रा का लडाईयों का केन्द्र होने के कारण यहां फौजी छाँवनियाँ बनाई गयी, जिससे चारों और फौज भेजी जा सके, इसी उन्नति की देन यहाँ पर कचहरी होना भी था। जिसका ऐतिहासिक पुस्तकों में वर्णन से पता चलता है कि यह बहुत बडा महल था जिसको कचहरी का रूप दे दिया गया था और गदर-1857 में यही महल फौजी छावनी बन गया था। इस महल का मुख्य प्रवेश द्वार विशाल था। 






Zamin Saheed yaadgar [ajanta to phuwwara Road]

अब उस स्थान पर सहारपुर बस स्टेंड है।गदर में पूरे देश में आग लगी थी तब क्षेत्रावासियों में अमन व सकून कहाँ था, देश के दुशमनों को यहाँ भी ज़ोरदार टक्कर दी जारही थी। एक बार हमारे वीरों का ऐसा भी दिन आया कि शामली की अंग्रेज़ी फौज को हरा दिया, बचे हुए फौजियों ने तहसील शामली में पनाह ली और विशाल प्रवेश द्वार बन्द कर लिया। अंग्रेजों कि फौज अन्दर आड से गोलाबारी करती रही हमारे युद्धवीर बगैर किसी आड के सीना ताने खडे थे, हथियार भी उनके पास आधुनिक न थे। अंगे्रज फौज को यह मौक़ा मिलता तो वह तुरन्त गोला बारूद से द्वार उडा देती और महल पर कब्ज़ा कर लेती।इन युदध्‍वीरों में रशीद अहमद गंगोही, हाफिज ज़ामिन शहीद और मौलाना मौहम्म्द क़ासिम साहब जिन्होंने देवबन्द मदरसे की स्थापना की थी का नाम पुस्तकों में मिलता है। इसी गोलाबारी में क़ासिम साहब को युक्ति महल में घुसने की सूझी जिसे यूँ अपनाया गया कि महल के पास बनी एक झोपड़ी को तहसील के प्रवेश द्वार के साथ रख कर जला दिया गया। जिससे महल का द्वार जल गया फिर हमारे वीरों ने फौज तो फौज तहसील की ईन्ट से ईन्ट बजा दी जिससे उस पल शामली पर पूरी तरह हमारे वीरों का कबजा हो गया। इस जंग में हाफिज ज़ामिन शहीद हो गये उनकी नाफ पर गोली लगी थी।इसी कारण कुछ समय पश्चात तहसील कैराना में बनाई गई जो कि सदैव अमन की धरती रही है।

अधिक विस्तृत विवरण के लिऐ पढें उर्दू पुस्तक ‘‘जिहादे शामली व थानाभवन’’  और दिल्ली से छपी ‘कौमी महाज़े आज़ादी में यू.पी. के मुसलमान’’।



अफसोस की बात है इतनी महत्‍वपूर्ण एतिहासिक स्‍थान की सरकार यादगार न बना कर उस स्‍थान पर बैंक बना रही है, जिसके एक वकील साहब ने किसी तरह इसका केस कोर्ट में लड रहे हैं जिसके कारण तामीर रूकी हुई है वर्ना सरकार ने जहां यादगार बनानी थी वहां बैंक कब का खडा कर दिया होता ।
विडियो लिंक
http://www.youtube.com/watch?v=Mn5946QPQNs





कैराना के इतिहास पर ऐतिहासिक भाषण

1972 के आल इण्डिया मुशायरा में प्रसिद्ध शायर करीम-उल-अहसानी का
कैराना के इतिहास पर ऐतिहासिक भाषण

यह वह सरज़मीन पाक है कि जिस पर हज़रत ख़्वाजा गरीब नवाज मुईनुददीन चिश्ती अजमेरी ने क्याम फरमाया।
यह वह काबिले ताज़ीम कस्बा है कि जहाॅ उस्ताद अब्दुल करीम खाॅ ने जन्म लिया और अपनी मौसीक़ी से हिन्दुस्तान का नाम बुलन्द किया जिनके स्टेचू आज भी कई रेडियो स्टेशनों पर बने हुए हैं।
यह वह मुकद्दस धरती है कि जिसने मशहूर जमाॅ गुलूकार अब्दुल वहीद खाॅ को पैदा किया, जिनके हिन्द व पाक में आज भी बेशुमार शागिर्द मकबूल और मशहूर हैं।
यह वह कैराना है कि जहाॅ से शकूर खाॅ सारंगी नवाज उठे और अपने फन से रूस, अफगानिस्तान तक को मसहूर करके भारत का नाम रौशन किया और पदम श्री का खिताब पाकर कैराना की अज़मत को चार चाॅद अता किये।
यह वह कैराना है कि जिसने मुन्शी मुनक्का ऐसे तन्ज़ और मज़ाह गो शायर पैदा किये इसी कैराना ने डाक्टर तनवीर अल्वी से उस्ताद ज़ौक़ को ज़िन्दा जावेद कराया, और इसी कैराना ने शबाब कैरानवी को फिल्म इण्डस्ट्री पाकिस्तान में एक अहम मुकाम दिया।
तारीख में कैराना की हमेशा एक अहम्मियत रही है, यहाॅ के काश्तकार हिन्दुस्तान में सबसे ज़ियादा गल्ला और मिर्च पैदा करते हैं लेकिन वह आज भी साहूकार के मक़रूज़ हैं।
कैराना की एक खास अहम्मियत जमना के पुल से भी हुई है, इस पुल ने पंजाब, हरियाणा और देहली को यू.पी. से बहुत ही क़रीब कर दिया है, आज इसी कैराना में जानिबे जनूब और मशरिक़ मशहूर मेला छडियान की तक़रीबात के सिलसिले में एक महफिले शेअर ओ शुखन मुनअकिद हो रही है।

नोटः मुशायरे की उर्दू में सम्पूर्ण कमेन्टरी उनकी किताब में पढ सकते हैं।
कैराना के मुशायरा मैदान में बनी पानी की टंकी

यादें पुस्‍तक ''कैराना कल और आज' , www.kairana.net और इस ब्‍लाग तक



उमर कैरानवी

है मुख़्तसर, मगर बातें सारी हैं।
है क़लम मेरी, पर यादें तुम्हारी
हैं।।

परम्परा है कि पुस्तक कैसे, क्यों एवं किस उददेश्य से छपी उस पर कुछ प्रकाश डाला जाए। इसलिए स्मरण, यादादश्त, को शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। जिसमें नई जानकारियाँ सामने आयेंगी।
साहित्यिक मेगज़ीन ‘‘जदीद अदब’’ जर्मन, उर्दू की प्रथम मेगजीन जो सम्पूर्ण वेबसाइट पर भी होती है, जिससे मैं दो वर्ष संबन्धित रहा, पर मुद्रित मेरा नाम उमर कैरानवी देखकर पाकिस्तान की एक बडी संस्था ‘‘ख्वाजा फरीद फाउन्डेशन’’ के सेक्रेटरी मुजाहिद जतोई ने पत्र द्वारा सम्पर्क किया और सहायता माँगी कि लगभग 100 वर्ष पूर्व में कैराना के ‘‘मिर्ज़ा अहमद अख़तर’’ जिन्होंने लगभग 50 पुस्तकें लिखी हैं, उनकी उन 10-12 पुस्तकों की तलाश है जो ख़्वाजा फरीद पर लिखी गयी हैं।
इसी कारण मैंने शायर डा. सलीम अखतर से सम्पर्क किया कि जिनका उपनाम अखतर है। कुछ हाथ न आया केवल एक मोहर और दो शे’रों के , मिर्जा अख़तर की तलाश में अपने इतिहास से लगाव हो गया।
न छेड़ ए हमनशीं प्रदेस में भूला सा अफसाना
मुझे पहरों रूलाता है मेरा घर मेरा कैराना।
मुन्शी मुनक्क़ा
इन्हीं दिनों अकबर अन्सारी साहब पुत्र रामू ने हमें एक पुस्तक ‘‘गुल आसारे रहमत’’ दी जिससे हमें दिशा मिली, अगली जानकारियों के जुटाने के सूत्र मिले। वेबसाइट में ईदगाह पर लेख अधिकतर अकबर साहब की जानकारियों पर आधारित है। जबकि इस पुस्तक में जो ईदगाह पर लेख है वह मेरी जानकारियों पर आधारित है।
बहुत से लेख और पुस्तकें एकत्र होने पर सोचता था कि उन्हें समाचार पत्रों में छपवाऊंगा या कभी पुस्तक छापूंगा। इन दोंनों विचारों के साकार करने और लेखों को रोचक बनाने के लिये कुछ चित्रों को एकत्र कर लेना भी जरूरी लगा। ऐतिहासिक इमारतों के चित्र लेना अच्छा लगा। लगभग हर गली मौहल्ले की ऐतिहासिक महत्वपूर्ण इमारतों की चाहे वह चोर बना पथर हो या दूर यमुना नदी या बहुत दूर पानीपत में स्थापित कसौटी के स्तम्भ के चित्र सब जमा करता गया, सलीम साहब के साथ होने से उकताहट भी नहीं होती थी।
दरबार दरवाजे का चित्र लेते समय सलीम साहब के जानकार ने 10 सितम्बर 1997 का ‘‘दैनिक जागरण’’ समाचार पत्र हमें दिया। जिसमें मामचंद चैहान का एक महत्वपूर्ण लेख ‘‘कैराना जो कभी कर्ण की राजधानी थी’’ छपा था। यह लेख कैराना विषय पर की पी.एच.डी. का सार था जो श्री आसाराम शर्मा जी पूर्व प्रधानाचार्य पब्लिक इण्टर कालिज-कैराना ने की थी। इसी लेख को पढकर इच्छा हुई कि इसे हर कैराना वासी पढे, जो कि मेरी तरह कैराना के इतिहास में केवल नवाब शब्द को जोकि नवाब तालाब, नवाब दरवाजे के बारे में सुन लेते हैं के अतिरिक्त कुछ नहीं जानते।
प्रत्येक उत्साहीजन तक इन ऐतिहासिक जानकारियों के पहुँचाने का एक ही उपाय समझ में आया कि वेबसाइट बनाई जाए। जो कि सबसे सरल और सस्ता साधन है एवं जिसे दुनिया में कहीं भी कभी भी देखा जा सकता है। इस सपने को साकार करने के लिए अपने अमेरिकन मित्र काशिफ से ई.मेल द्वारा अपनी इच्छा बताई। जिनकी वेबसाइट उर्दुस्तान डाट कोम में मैं भारतीय प्रतिनिधि हू। इस वेबसाइट को विश्व में हजारों उर्दू वाले प्रतिदिन देखते हैं। उन्होंने अपने वेबस्पेस से कुछ स्थान मुझे दिया और 2004ई. में www.urdustan.net/kairana नाम से रजिस्ट्रेशन कर दिया जो अभी जारी है।
इसी बातचीत के दौरान मैं दिल्ली में वेबसाइट का प्रशिक्षण ले चुका था। अनुभव और एवान-ए-गालिब-दिल्ली में कम्पयूटर से सम्बन्धित नौकरी जिसमें सप्ताह में दो दिन के अवकाश में कैराना रहने से वेबसाइट सम्भव हो सकी।
डा. सलीम साहब जो कि कान रोग विशेषज्ञ हैं प्रारम्भ से ही इस उद्देशय में साथ हैं इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। समाचार पत्र में वेबसाइट का समाचार छपने पर नए मित्र इस उद्देश्य में साथ हो लिए, उनके साथ मिलकर कैराना वेबसाइट समिति बना ली गई। स्नेह लता जिन्होंने कि इस पुस्तक हेतु प्रेरित किया का योगदान उल्लेखनीय है। अमित गर्ग, मुकेश गोयल, साद अखतर सिद्दीकी, मुशर्रफ सिद्दीकी, ज़ियाउल इस्लाम बागबॉ एवं मेहरबान अली कैरानवी के योगदान के बारे में जितना लिखूं कम है। इक़बाल और ताराचंद जी से बहुत उम्मीदंे हैं।
सलीम साहब जैसे जो सर्दी हो या धूप या फिर बारिश स्वयं यह पूछते हैं बताओ अब कहाॅ चलना है या क्या करना है। कैराना में ऐसे दो-चार मिल जाते तो इतने समय में बहुत कुछ सम्भव था। अब स्नेह लता, भांजे सलीमुद्दीन और भतीजे ज़ियाउल इस्लाम की दिलचस्पी भी प्रशंसनीय है।
कैराना विषय पर कहीं कोई जानकारी इन्टरनेट पर ढूँढता है उसे हमारी वेबसाइट मिल जाती है। वेबसाइट की सफलता को देखते हुए विचार किया कि साइट का नाम छोटा होना चाहिए जिसे याद रखा जा सके एवं एक से दूसरे को बताने में सरलता रहे। इसलिए 2005में www.kairana.net नाम से रजिस्टेªशन करा लिया गया। अब साइट दोनों नाम से है लेकिन नई जानकारियाँ चित्र आदि कैराना डाट नेट पर ही डाली जा रही हैं । इसे अब जनवरी 2009 ई. तक लगभग 5000 बार देखा जा चुका है। (अफसोस 2011 में यह भी बंद हो गयी)
हिन्दी में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं इसलिए उर्दू से हिन्दी में रूपांतर किया गया। इस कारण यह समझना मुश्किल था कि उर्दू शब्द معمار के लिए मेमार, लिखें या मे‘मार हालांकि मैमार लिखना मुझे ठीक लगा जबकि हिन्दी शब्दकोष में मेअमार लिखा है। वालिद को अब्बा लिखूं या पिताजी लिखूं? यह पुस्‍तक उर्दू में फरीद बुक डिपो दिल्‍ली से छपवाई,


इस पुस्तक के अधिकतर लेख वेबसाइट पर पहले से पढे जा रहे हैं जिनमें कई लेख तो दुर्लभ हैं। रिक्त स्थान में भी महत्वपूर्ण जानकारियॉ दी है। अफसोस कि 64 पृष्ठों की इस पुस्तक में उर्दू पुस्तक ‘‘आसारे रहमत’’ और वर्तमान में एकमात्र उपलब्ध उर्दू पुस्तक ‘‘हरीमे अदब’’ के बारे में जानकारी न देसका। ऐसा लगता है कि ताबिश साहब शायद स्वयं इसे हिन्दी में छापें। बातें सारी हैं इसमें नहीं तो वेबसाइट में पढ सकते हैं। पुस्तक में देना बहुत कुछ था पर संयोजक के मिलने के बाद कहॉ रूका जाता है!
इन्टरनेट पर अभी अधिक की पहुँच नहीं हो पाई इसलिए सभी तक अपना इतिहास पहुंचे यह पुस्तक इसका प्रयास है। वेबसाईट में कई पुस्तकें उपलब्ध हैं।
इस पुस्तक में श्री राजेन्द्र कुमार साहब, डा. एन. सिहं साहब प्राचार्य-महाविद्यालय, कौसर ज़ैदी साहब, काज़िम अली जै़दी साहब, अन्सार सिद्दीकी साहब, डा. ऐवज़ साहब जो जनपद के पहले ऐसे शायर जिनका दीवान आनलाइन है से मशवरा किया, सभी ने हौसला बढ़ाया।
जावेद रज़ा और शाह रज़ा को अच्छे कामों में सदैव हर तरह से सेवा के लिए तैयार पाया। डा. इसरार क़ासमी और शान-ए-बागबॉ कमेटी ने भी प्रोत्साहित किया।
हमारा सौभाग्य कि यह पुस्तक अब्बा जी अवकाशप्राप्त अधायपक श्री हाजी मौलाना शमसुल इस्लाम मज़ाहिरी बागबॉ के सौजन्य से आपके हाथों में है। आपके द्वारा हिन्दी में रूपान्तरित उर्दू पुस्तक एक मुजाहिद मैमार मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी छप चुकी है। इस पुस्तक में अब्बा जी की दिलचस्पी प्रशंसनीय रही। सौभाग्य से आपकी उर्दू, हिन्दी, अरबी, फारसी, धार्मिक एवं इतिहास के असीमित ज्ञान से जो कैराना में अतुल्य है से लाभान्वित हो रहा हूँ। दो बार अरब और तीन बार पाकिस्तान का सफर करने से आपके ज्ञान में और वृदिध्‍ी हुई है। आपको मदरसा सौलतिया-मक्का में क़्याम ;निवास, के दौरान मक्का की एक बडी संस्था द्वारा बतौर अरबी-फारसी उस्ताद बनाने की पेशकश की गई जो आपने नामन्ज़्ूर की, क्योंकि मक्का में जो विवशता के कारण कुछ समय के लिए दफ़न किया जाता है वह आपको पसन्द नहीं।
पुस्तक की त्रुटियॉ हाफिज मास्टर सलीमुद्दीन बागॉ , और अब्बा जी से दूर कराई गई हैं। यह केवल जानकरियॉ हैं, अपने लेख के बारे में कह सकता हूं कि प्रयाप्त अवलोकन के पश्चात लिखे हैं। दूसरों की वे जानें या ख़ुदा जाने। पूरी पुस्तक पढेंगे तो जानकारी को अपने आप समझ लेंगे। फिर भी किसी त्रुटि पर दृष्टि पडे तो बताईये वेबसाइट में और तीसरा संस्करण सम्भव हुआ तो उसमें ठीक कर लिया जायेगा। उर्दू में भी यह पुस्‍तक छापी थी जो इतन्‍ी कामयाब नहीं रही,
अब तक मिली ऐतिहासिक पुस्तकों में मुझे 16 पृष्ठ की उर्दू पुस्तक ‘‘कैराना शरीफ’’ बहुत पसन्द आई, क्यूंकि इसमें कैराना का इतिहास हिन्दु-मुस्लिम की सभी जातियां के योगदान का ख्याल रखते हुये मन्जूम बयान किया गया है। बार-बार पढने से मुझे भी शायरी का शौक़ हो गया। यह पुस्तक और सफी साहब का परिचय वेबसाइट में उपलब्ध है।
मोबाइल के द्वारा वेबसाइट बहुत जल्द आपके हाथों में होगी, वह समय आने से पहले आपके लिये वेबसाइट बन चुकी है। वेबसाइट का वार्षिक खर्च, चित्र खींचने और पुस्तकें आदि खरीदने में काफ़ी खर्च होजाता है, में कोई अमीर, सक्षम, नहीं इसलिए देखते हैं यह जुनून कब तक सवार रहता है। लेखक भी नहीं हूं आप तक जानकारियां पहुंचाने के लिए लिखना शुरू किया, इस लिए प्रोत्साहन की बहुत ज़रूरत है।

इन सब बातों को देखते हुये ब्‍लाग बनाया आशा करता हूं कि पाठकों का सहयोग मिलेगा





बेमिसाल ईदगाह - उमर कैरानवी

कस्बा कैराना के पश्चिम मे अनुमानतः १८८० ई. में लगभ 20 बिगह में बनी ईदगाह जो सौभाग्य और सुव्यवस्था से सफेदी में अलग ही सौन्दर्य बिखेरती हुई आज भी सुशोभित है। इस्लामी स्थापत्यकला (फन्ने ता‘मीर)की बहतरीन मिसाल है। सुन्दर एवं लुभावनी जिसे देखने वाला देखता रह जाता है। ऐसी सुन्दर ईदगाह किसी कस्बे, शहर तो क्या संसार में भी कहीं नहीं। उस्ताद महमूद खाँ स़फी कैरानवी, अपनी मन्ज़ूम उर्दू पुस्तक ‘‘कैराना शरीफ़’’ में  ईदगाह की प्रशंसा यूँ करते हैं

यहाँ ईदगाह भी है एक दिलरूबा
बडी दिलकुशा है बहुत खुशनुमा।
पडी जैसे सूरज की इस पर निगाह
तो आता है रोज़ाना वक्ते पगाह(सुबह)।

ईदगाह जिसकी आज हरे नीम के पेडे शौभा बढा रहे हैं कभी इस स्थान पर एक रात में बाग तैयार दिखाया गया था। इस बारे में मुशर्रफ सिद्दीकी, एडिटर साप्ताहिक ‘‘अमन के सिपाही’’ 28 फरवरी 2005 ई. के अंक में इस कहानी को कुछ इस तरह से लिखते हैं।
‘‘कैराना की प्राचीन ईदगाह की तामीर से पूर्व इस भूमि पर खण्डरात थे और पुजाएं के नाम से जाने जाते थे। उक्त भूमि पर एक समाज के लोग अपना हक जताते थे, दूसरी और चैधरी इमदाद अली उक्त भूमि पर अपना हक जताते थे। दोंनों पक्षों का विवाद अदालत तक पहुँचा। एक पक्ष के लोगों ने उक्त भूमि को बाग बताया। मजिस्ट्रेट ने कमीशन भेजा और खुद भी मुआयना किया। अगले रोज कमीशन पहूँचा तो वहाँ पर बाग मौजूद था।
बताते हैं कि उक्त भूमि पर रातों-रात सफाई कराकर आम के बडे टहने एव कुछ पेड लगाए गए थे। दूसरे पक्ष ने कहा कि यह कल रात ही लगाये गये हैं इन्हें हिलाकर देखिये मजिस्ट्रेट ने कहा हम यह देखने आये हैं कि इस भूमि पर क्या है यह नहीं कि कब से है। फिर चैधरी इमदाद साहब (दादा चैधरी अखतर हसन वर्तमान अध्यक्ष ईदगाह समिति) और दूसरे पक्ष के बीच समझौता हुआ कि इस भूमि पर आगे कोई अपील न की जाये और न ही आगे लड़ा जाये। इस जगह पर ईदगाह की तामीर करा दी जाये। जो सभी लोगों के काम आ सके और ऐसा ही किया गया।’’
imLi ka ped,peechhe eidgah men dikhayi de raha he
कैराना के आकर्षण का केन्द जो लगभग 20 बिगह में बनी इस बेमिसाल ईदगाह में इस समय अधिकतर नीम के पेड लगे हैं।

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ईदगाह की दो तरफ सडक और दो तरफ चौधरी अख़्तर साहब की कृषिभूमि है। यह चौधरी साहब की ज़मीन (भूमि) काफ़ी नीची है मेरा अनुमान है कि ईदगाह को प्रयाप्त ऊँचाई देने और निर्माणकार्य में इस स्थान की मिटटी का प्रयोग हुआ होगा। क्यूंकि पास ही दूसरी ज़मीनें सडक की ऊँचाई के बराबर हैं। ईदगाह की चारों ओर छोटी बडी कई बहुत सी पेडियां हैं, सडक की ओर वाली पेडियां भराओ के कारण दबती जा रही हैं। सडक की तरफ की जालीदार दीवार जिसमें अक्सर लोग अपने जानवर बाँध देते थे टूट जाती थी कुछ समय पूर्व इसे चैडा करा दिया गया है।
काबा के इस पुराने दरवाजे की नकल ईदगाह कैराना में की गयी
काबा की पुरानी पिक्‍चर से पता चलता है  कि ईदगाह के दोनों दरवाजों और अंदर 10 दरवाजों के सपील के डिजाइन उससे लिए गए हैं ।

मेन गेट के पास चैडी मुंडेर वाला कुआँ था उसे 1995ई. में पाट दिया गया है। इसी के क़रीब एक हैंडपम्प काफ़ी दिन तक लगा रहा।
ईदगाह के दो हिस्से हैं जिन्हें कच्ची ईदगाह और पक्की ईदगाह कहा जाता है। कच्ची तिकोने आकार में हे कभी इसमें मिर्च मण्डी थी जो यहीं से हलवाईयों के कब्रिस्तान के सामने चली गई थी। सुलेमान बागबाँ साहब का कहना है कि नेकदिल मौलवी मौ. उमर साहब मरहूम को मण्डी का जाना पसंद नहीं आया था उनकी बददुआ से तभी से कैराना की मिर्च में उसकी विशेषता गायब होती चली गई।
कच्ची ईदगाह अब सडक से लगभग दो फुट की ऊँचाई पर है इसमें एक बडा बरामदा सपील और एक कोठा जो कि शायद चैकीदार के लिये बना है जिसमें अधिकतर आटा चक्की चलती रही है। इसमें कई नीम के पेड लगे हैं अब कई पेड  नए लगाये गये हैं। कच्ची ईदगाह मे 2003 ई. तक एक इमली का पेड था जिससे ईदगाह का आकर्षण दोगुना हो जाता था। कैराना की वर्तमान नस्ल जो ईद की नमाज़ के लिये आते रहे हैं एवं आसपास की आबादी वाले इस इमली के पेड को बहुत याद करते हैं।

पक्की ईदगाह जो कच्ची से लगभग 4 फुट ऊँची है लाल ईंटों की जोकि चैडी मुडेर में 6 पेडियों और छोटे-बडे बहुत से पुश्तों के साथ चकोर बनी है। चैबारे के नीचे ईंटों के फर्श पर लिखी तिथि से पता चलता है कि  1961 में पक्की ईंटों का फर्श किया गया। सुलेमान साहब का कहना है कि ईदगाह का फर्श मौलवी मौ. उमर साहब की महनत से इकटठा किये गये पैसों से हुआ था और ईदगाह पानीपत के कारीगरों ने बनाई थी। इसमें दो छोटे बरामदे और एक चैबारा बना है जो कि ईदगाह का सबसे सुन्दर हिस्सा है, इस चौबारे में मुगलकालीन इमारतों में प्रयोग होने वाला रंग रोगन कहीं-कहीं से अभी भी दिखाई देता है। इसमें कलात्मक फूल-पत्तियों, चार छोटे मीनारों, जीलियों और छजली से मोहित कर देने वाली सुन्दरता है। बुजुर्ग बताते हैं कि कभी इस की दो मंजि़ला छत पर से यमुना दिखाई देती थी। पक्की ईदगाह में नीम के पेड लगे हैं 7-8 वर्ष पहले तक शीशम के पेड भी थे। जैसे ताजमहल को हुमायुं के मकबरे के आधार पर डिजाईन किया गया था उसी तरह ऐसा प्रतीत होता है कि कैराना की ईदगाह का डिजाईन मुगलकालीन इमारत ‘‘चांदनी हज़ीरा’’ जो बूचडखाना वाले रोड पर बनी है से लिया गया है। क्यूंकि ईदगाह की पुश्त की दीवार और प्लेटफार्म(चबूतरा) जोकि ईदगाह का मुख्य ढांचा है वह चांदनी हज़ीरा से मिलता जुलता है इसी लिये ‘‘चांदनी हज़ीरा’’को पुरानी ईदगाह भी कहा जाता है। जबकि डा. तनवीर अहमद अल्वी कहते हैं कि वो  कब्रिस्तान में बनी इमारत जनाज़ा की नमाज़ पढने के लिये थी।
1978 ई. में यमुना में ऐसी बाढ़ आई थी कि पानी लगभग 4 कि.मी. बहकर कैराना आ गया था। पानी को आगे बढने से रोकने के लिये ईदगाह के बराबर वाली सडक पर कडा(आड-अवरोध) लगाया गया थी। भोले-भाले लोग कहते थे कि यमुना ईदगाह को सलाम करने आई है।

ईदगाह के दो ऊँचे मीनार हैं जिसमें खेतों की तरफ बायी ओर का मीनार गिर गया था इस पर लगे शिलालेख से पता चलता है कि इसे नवम्बर 1967 ई. में ता’मीर किया गया है।
Purni Eidgah
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दूसरा दायी ओर सडक की तरफ का मीनार बगैर रंग रोगन के बहुत समय तक भय के कारण काला रहा क्यूंकि मशहूर था कि इस पर असर अर्थात जादू टोना है। लेकिन 2001ई. में आसपास की आबादी के नवयुवकों ने पचासो साल से काले मीनार को रंग कर अपनी हिम्मत और ईदगाह से अपने लगाव का परिचय दिया था। वहीं यह भी प्रशंसनीय है कि इन लोगों ने स्वयं ही आसपास की आबादी से इसके खर्च में सहयोग लिया था। और इतनी ऊँचाई पर रंग करना अलग बडी बात थी। मुझे उनमें से अब जहूर हसन ,फुर्क़ान नीलगर, तौफ़ीक बाग़बाँ, मतलूब पुत्र साम्मा और दिलशाद याद हैं। आसपास की आबादी के इसी लगाव के कारण भी ईदगाह 127 सालों से बगै़र चैकीदार के सलामत रह सकी।
धार्मिक पुस्तकों से पता चलता है कि ईदगाह आबादी से दूर बनाई जाती है। जिस कारण यह एक बडा प्लेटफार्म (चबूतरा) मीनारों के साथ होता है। यही तरीक़ा मुजफ्फर नगर, कांधला और दिल्ली में ईदगाह में प्रयोग किया गया है। सभी प्रमुख स्थानों की ईदगाह इन्टरनेट पर देखी जा सकती हैं। उनको देखने से ज्ञात होता है कि ईदगाह का ढांचा का जो स्वरूप है उसे कैराना की ईदगाह में बहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया गया है। क्यूंकि यह आबादी से दूर होती है इसलिये इसे बिल्डिंग नहीं बनाया जाता और मस्जिद भी नहीं कि नमाज़ियों के लिये जगह बनाई जाये। वैसे भी कैराना की दूसरी ईदगाहों में भी नमाज़ पढ़ाई जाती है भविष्य में ज़रूरत पडने पर उन सैंकडों मस्जिदों में से कुछ में ईद की नमाज़ प्रारम्भ की जा सकती है या फिर जैसाकि धार्मिक पुस्तकों से ज्ञात होता है अर्थात आबादी से दूर बनाई जा सकती है।
अफसोस कि कैराना के इतिहास पर प्रकाश डालने वाली पुस्तकों में इसके बारे ना लिखने के बराबर लिखा है।
ईदगाह में 7-8 वर्ष पूर्व जो शिलालेख (कत्बा) लगाया गया है इस बारे में सुना है कि यह जामा मस्जिद में रखा था जो कभी इसी स्थान पर लगा था। इस पर फारसी की आठ में से एक इबारत से पता चलता है कि ईदगाह को चौधरी इमदाद साहब (दादा चैधरी अखतर हसन साहब, वर्तमान अध्यक्ष ईदगाह समिति) ने बनाया था। शिलालेख (कत्बा) बहुत ऊँचे स्थान पर लगा है जिसे पढने में कठिनाई होती है। शिलालेख उर्दू अनुवाद के साथ कम ऊँचाई पर होता तो जनता को समझने में आसानी होती।
सौभाग्य से अभी तक कैराना की ईदगाह का व्यवसायीकरण नहीं किया गया। आज यह कैराना की एकमात्र ठीक-ठाक हालत वाली बेमिसाल ऐतिहासिक धरौहर है जहाँ असीम शांति का अनुभव होता है। ख़ुदा से दुआ है कि इस सुन्दर ऐतिहासिक ईदगाह को हमारी आने वाली नस्लें भी देख कर फखर कर सकें।
आमीन!
15 जनवरी 2007

लखनउ का रूमी दरवाजा, इसके डिजाइन से ईदगाह का चौबारा तैयार हुआ

काबा का पुराना चित्र इस दरवाजे के डिजाइन को ईदगाह कैराना के दरवाजे में आजमाया गया



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नौ लखा बाग़ और बाग़बाँ

उमर कैरानवी : कस्बा कैराना की ईदगाह की कहानी बडों से सुनते रहे हैं कि कैसे एक रात में मजिस्ट्रेट को बाग़ तैयार दिखाया था। यह उस समय के बागबानी के कार्य करने वालों का कारनामा था। बागबानों के कैराना में आबाद होने के बारे में मेरे अब्बाजी हाजी शमसुल इस्लाम मज़ाहिरी सीना ब सीना कहानी (लोक कथा) सुनाते हैं जो उन्होंने अपनी जीवनी में विस्तार से लिखी है कि ‘‘जब नवाब मुकर्रब खाँ वज़ीरे जहाँगीर बादशाह ने नौलखा बाग़ लगाने का संकल्प किया था तब उन्हीं दिनों एक राजस्थानी राजपूत फरार हत्यारा नवाब साहब की शरण में आया। बातचीत से पता चला कि वह बागबानी में माहिर था। नवाब साहब उन दिनों महल और तालाब के निर्माण के साथ नौलखा बाग़(नो लाख वृक्षों का उद्यान) का संकल्प (मन्सूबा) किये हुये थे। इस शर्त पर उसको क्षमादान करवायी कि वह उनके नौलखा बाग के संकल्प (मन्सूबे) को पूरा करवायेगा।’’ इस बाग में बादशाह जहाँगीर आये और अपनी पुस्तक ‘‘तुजके जहाँगीरी’’ में इसके विवरण में लिखते हैं कि इस बाग में मैंने पिस्ता और सरू के ऐसे पेड देखे, इन जैसे कहीं नहीं होते। यह सब बाग़बानों का ही तो कमाल था। यह पुस्तक खुदा बख़्श लायब्रेरी-पटना की वेबसाइट पर उर्दू में उपलब्ध है।
तालाब के आसपास जो सैंकडों दूधी पत्थर के कुएं हैं यह उसी बाग की जल व्यवस्था के लिये बनाये गये थे। ऐसे पत्थर के कुएं हिन्दुस्तान में कही नहीं। उस्ताद महमूद खाँ स़फी कैरानवी, अपनी मन्ज़ूम उर्दू पुस्तक ‘‘कैराना शरीफ़’’ में जो वेबसाइट कैराना डाट नेट पर उपलब्ध है। यूँ लिखते हैं
लगाया था नौलखा एक बाग़ भी
लगे आम व अमरूद सेब व बही।
दरख्त इसमें लाखों किस्म के लगे
सभी सब्ज़ व शादाब फूले फले।
कहें हिन्द में पिस्ता फलती नहीं
मगर बागे बंगला में फूली फली।
140बिगह का बाग़ जिसके बीच में तालाब था बहुत बडा होने के कारण इस बागबाँ ने अपने रिश्तेदारों को भी यहाँ बुला लिया। जो यहीं बस गये और आज भी खेत खलिहान एवं बागों के काम कर रहे हैं। आगे चलकर यह लोग माली कहलाये जिन्होंने वक्त पडने पर तलवार भी उठाई। इस बारे में ‘‘कैराना शरीफ़’’ में शायरी में विवरण यूँ हैं
जो थे बाग़बानी को यहाँ बाग़बाँ
उन्हीं की है औलाद माली यहाँ
ग़दर में गुलामी से आ आ के तंग
लडे अहल कैराना की ख़ूब जंग
उ.प्र. में कैराना, लखनऊ, मंगलौर, सहारनपुर नजीबाबाद, बहराईच आदि में फैली हुई इस बिरादरी ने जो अलग-अलग नामों से जानी जाती थी, कुछ समय पूर्व बडों छोटों के मशवरे से इस बात की घोषणा कर दी कि हम माली, बाग़बाँ और गुलफरोश बिरादरी ने अपनी एक पहचान बाग़बाँ कर ली है, जिसे सभी ने अपना लिया है। बुजुर्गों का अनुमान है कि इस समय कैराना की आबादी में लगभग दस हज़ार बाग़बाँ हैं।
1910-50 ई. में नबिया पहलवान (बागबाँ) का नाम पश्चिमी उ.प्र. और हरियाणा में बहुत मशहूर हुआ। मौलवी फैज़ुल्लाह साहब के रूहानी असर से इस पहलवान ने बहुत नाम कमाया। मौलवी साहब भी नबिया पहलवान की कुश्ती देखने आते थे। बुजुर्गाें का कहना है कि उस समय हज़रत थानवी के मुरीद जो कि कुश्ती देखने को अच्छा नहीं समझते थे वह भी चुपके-चुपके नबिया पहलवान की कुश्तियाॅ देखनेे आते थे। छडियों के दंगल से पहले इस पहलवान को बिरादरी वालेे एक रूपया हर घर से देते थे जबकि एक रूपये का एक सेर घी आता था।
उस समय नबिया पहलवान, भंगड-गूजर एवं इन्ना-तेली का डंका था। जब तक यह तिकडी रही कोई कैराना से जीत कर ना जासका। भंगड-गूजर बारे में कहा जाता है कि यह बगैर खूंटे से बंधी भेंस की एक हाथ की शक्ति से टांग जकडकर दूसरे से दूघ पीता था।
इसी समय में हाफिज बुन्दू (बागबाँ) रूहानी विद्वान थे। इनका मज़ार मौहल्ला अफगानान-घौसा चैकी के पास है जहाॅ अकीदतमंद (श्रद्धालु) काफी संख्या में हाज़री देते हैं। थोडी दूरी पर मुगल काल में बनी मस्जिद है जिसे अब हाफिज बून्दू वाली मस्जिद कहा जाता है। कैराना में आपके कई शिष्य रूहानी लाभ पहुॅचा रहे हैं।
कुछ समय पूर्व अनीस पहलवान (बागबाँ) मरहूम जो कैराना में बहुत से ईनाम जीत कर लाये को1995 ई. में तत्कालीन मुख्यमंत्राी श्री मुलायम सिंह यादव ने 25000 रूपये तथा प्रमाणपत्रा दिया था।
वर्तमान में अब्बाजी जिन्हें मदर्सा सौलतिया-मक्का में क़्याम ;निवासद्ध के दौरान मक्का की एक बडी संस्था द्वारा बतौर अरबी-फारसी उस्ताद बनाने की पेशकश की गई, जो आपने नामन्ज़्ाूर की, क्योंकि मक्का में जो विवशता के कारण कुछ समय के लिए दफ़न किया जाता है वह आपको पसन्द नहीं। भतीजा जिया उल इस्लाम जो कैराना में राष्ट्रपति एवार्ड लाया जिसके पिताजी दिल्ली में स्काउट एंड गाईड के स्टेट कमिशनर हैं एवं मुझ से बडे भाई नजमुल इस्लाम जो उप-प्रधान मंत्राी चैधरी देवी लाल के दो बार सहायक रह चुके हैं इसी बिरादरी से हैं जो कल कैराना को नौलखा बाग़ से सजाने के लिये यहाॅ बसे थे आज यह सेवक इन्टरनेट (M. Umar Kairanvi ) की दुनिया में इसे सजा रहा है।
17.01.2007

पुस्तक ‘कैराना शरीफ’ उर्दू -- आसान शे‘र

लेखकः उस्ताद सफी कैरानवी--
हिन्दी रूपांतर: उमर कैरानवी
पुस्तक ‘कैराना शरीफ’ उर्दू में है जिसमें 250-300 शे‘रों में कैराना की तारीख बयान की गयी है। आसान शे‘र चुनकर दिये जा रहे हैं।
कैराना शरीफ


न अगर कुफर का खौफ होता मुझे
जहाँ भर से अच्छा कहता इसे

यहाँ के हैं जितने भी दीवार व दर
ता‘स्सुब के गारे से हैं बे खबर

बहुत खूबसूरत हैं सीरत में नेक
यहाँ सौ हैं दुनिया में है कोई एक

गये मक्क़ा में रहमतुल्लाह मियाँ
किया इल्म का वाॅ से दरिया रवाँ

यहाँ पेहलवान हैं जिनों से लडे
सरे दस्त झोटा उठा ले उडे

पढ़ा कलमा गूजर ने बा इश्तियाक़
बदस्त शहन्शाहे अब्दुर्रज़ाक
मुसलमान गूजर जो पहला हुआ
तो उसका हसन नाम रखा गया।

यहाँ के हैं सब केस्त आला नसब
सहारनपुरी के आये हैं सब

पठानों में कूडा था एक नाम का
किसी से ना कुश्ती में वह चित हुआ

यहाँ के जुलाहे भी अन्सार हैं
कि अयूब रजी0 के खास दिलदार हैं।

वह जिस्तर पे दैवी का मन्दिर है एक
ब तरतीब मन्दिर में मन्दिर है एक।
है खुश मन्ज़र और खुश फिज़ा बहार
बने जिसमें बे मिस्ल नक़्श और निगार।
कहें जिसको जिस्तर वह तालाब है
बडा लम्बा चैडा है पुर आब है।

यहाँ के धोबी भी हैं ज़ी शऊर
जो दामन से धब्बे को करते हैं दूर।

यहाँ पीर बाले हैं बाले मियाँ
जो हैं नौ गज़ी कबर के दरमियाँ।

यहाँ पन्जाबी बिसाती भी हैं
यह हैं नेक और नेकों के साथी भी हैं।

घराना है मौसीक़ी का एक यहाँ
जिसे मानता है मयूजिक जहाँ।
जमाने की मौसीक़ी इस जा है मान्द
लगाए हैं नगमा को यहाँ चार चाँद।
नई धुन नई ताल जो दिल को भायें
नये सुर नई सरोतियाँ बहार जायें।
वह थे कौन उस्ताद अब्दुल करीम
नहीं कोई जिनका अदील व सहीम।

वहीदुज़्ज़माँ हैं वहीदुज़्ज़माँ
मयूजिक बदन है ब रूहे रवाँ

शकूर अपना फन लेके पहुँचे जो रूस
गये अहले रूस अपने फन तक से रूस


यह लिखना है बन्दे अली को क़लम
कि ले तानसेन उनके आकर क़दम

यहाँ सात चैपड के बाज़ार हैं
गली कूचे इस जा के गुलज़ार हैं।

यहाँ ईदगाह भी है एक दिलरूबा
बडी दिल कुशा है बहुत खुशनुमा।
पडी जैसे सूरज की इस पर निगाह
तो आता है रोज़ाना वक़्ते पगाह।

वह ख़ाने मुकर्रब थे आली जनाब
मुकर्रब जहाॅगीर के कामयाब।
हसन नाम उनके पिदर का बहा
जहाँगीर के साथ खेला पढ़ा।
जहाँगीर अब तक वही था सलीम
मुकर्रब कहा इसको रखा नदीम
सलीम और हसन में बडा पियार था
हर एक जाँनिसारी को तैयार था।
लगाया था नौलखा एक बाग भी
लगे आम व अमरूद सेब व बही।
दरखत इसमें लाखों किस्म के लगे
सभी सब्ज़ व शादाब फूले फले।
कहें हिन्द में पिस्ता फलती नहीं
मगर बाग बंगला में फूली फली।
बना बाग में हौज़ सीमीं सिफत
इसे संग और गच से किया है करखत।
शिमाल और मग़रिब में दरवाज़ा चार
कि ताके धूप में लोग पायें क़रार।
शिमाल और मशरिक़ खुले घाट हैं
दक्कन की तरफ भी यही ठाट हैं।
नया चबूतरा माहताबी भी है
कमर खासियत में कि आबी भी है।
जो नापा गया हौज में चबूतरा
छियासठ फुटों में वह लम्बा हुआ।
पडीं छोटी छोटी सी थी किश्तियाँ
बत्तखें की तरह हौज़ में फिरतियाँ।
यह छ सौ पिचहत्तर का लम्बा है हौज़
मगर चैदह फुट पुख्ता ऊँचा है हौज।
जहाँ जमना से पानी आता रहा
निकल करके झरनों से जाता रहा।
चली झरनों से पुख्ता लम्बी नहर
गई बाबा पिटटी में जाकर ठहर।

कुऐं तीन सौ साठ अलावा अजीं
वह सब संग खारा के थे सब हसीं

बनी है सरे हौज़ जो सहे दरी
कसौटी के थम से मज़्ायन वह थी
वह थम अब कलन्दर में पहुँचा दिये
कि दुनिया में कोई ना फिर ले सके।

गढ़ी में नहीं काम शाहों से कम
पर अब इसकी हालत पे है दीदा नम

बागबानों की बागबानी को जो थे बागबाँ
उन्हीं की औलाद माली है यहाँ

खुली मुझ पे अब तक ना यह गुलझटी
सवा पहर क्योंकर है कंकर लडी।

नहीं उम्दगी में कुछ इसके कलाम
जिसे दुनिया कहती है बाडा इमाम।

जिन्होंने किया मुखतसर यह बयाँ
सफी है तखल्लुस, हैं महमूद खाँ।
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नोटः पूरी किताब जोकि उर्दू में है
7 feb 2019 men Urdu short Book bhi Daal di






संगीत की दुनिया में kirana gharana‘‘कैराना घराना’’

उमर कैरानवी

‘कैराना घराना’ जिसने संगीत की दुनिया विशेष रूप से शास्त्राीय संगीत में कैराना का नाम रौशन किया, वह किराना घराना के नाम से अधिक मशहूर है। जिसका आज भी संगीत में योगदान है। युरोप, अमेरिका, चीन आदि की यात्रा करने वाले कैराना घराना के संस्थापक अब्दुल करीम खाँ राग गाने में विश्व विख्यात रहे हैं, उनके गीतों के एच0 एम0 वी0 ने अनेक ग्रामोफोन रिकार्ड बनवाये जोकि बहुत हिट हुए।

एक समय ऐसा था कि भारत में दो संगीतकार थे जिनमें से एक अब्दुल करीम खाॅ थे और रिकार्डर कम्पनी अकेली एच0 एम0 वी0 थी, कम्पनी के ग्रामोफोन रिकार्डर पर अंकित कुत्ते के चिन्ह के बारे में कहा जाता है कि अब्दुल करीम खाँ जब बम्बई गये तो अपने साथ वह अपना कुत्ता भी ले गये जो संगीत ध्यान से सुनता था यही बात एच0 एम0 वी0 को पसन्द आयी और इस कुत्ते के चित्रा को रिकार्डर लोगो के रूप में दे दिया गया। बहुत से ग्रामोफोन रिकार्डरों को आज भी कैरानावासी काज़ी अनीस अहमद के पास देख सकते हैं।


इस बारे में मुन्शी मुनक्क़ा जो फिल्मी दुनिया से तालुक रखते थे व उन्होंने अब्दुल करीम खाँ का समय देखा है ने अपनी पुस्तक ‘‘कडवे बादाम’ में लिखा है कि एक बार अब्दुल करीम खाँ पूना में संगीत की शिक्षा दे रहे थे तब किसी विघार्थी से खिन्न होकर उन्होंने ने कहा कि तुम संगीत की शिक्षा नहीं पा सकते कुत्ता पा सकता हैा। तब उन्होंने इस बात को सच कर दिखाया दो कुत्तों को राग सिखाय जो प्रोग्राम पेश करते थे। एच0एम0 वी0 ने कुत्ते के चिन्ह उन्हीं की सम्मान में दिये हैं।

कैराना घराना के सम्मान का अनुमान एक कथन से यूँ होता है कि अपने समय के महान संगीतकार मन्नाडै का किसी कारण कैराना आना हुआ तो कैराना की सीमा प्रारम्भ होने से पहले ही जूते उतार कर हाथों में ले लिए कारण जानने पर बताया कि यह धरती महान संगीतकारों की है इस धरती पर में जूतों के साथ नहीं चल सकता। कैराना वासियों ने मन्नाडै को सम्मान का उत्तर सम्मान से देते हुऐ उनकी याद में छडियान मैदान के स्टेज को जिस पर उन्होंने अपना प्रोग्राम प्रस्तुत किया था, मन्नाडै स्टेज का नाम दे दिया जो आज भी प्रचलित है।
अब्दुल करीम खाँ को आल इंडिया रेडियो ने इस तरह सम्मान दिया कि अपने मुख्य प्रवेश द्वार पर उनकी बहुत बडी प्रतिमा स्थापित की हुई है।

यहाँ कैराना घराना की संगीत साधना मुगल काल से हुई थी। उस समय कैराना के रहने वाले उस्ताद शकूर अली खां द्वारा यह संगीत कला शुरू की गई थी। किराना घराना आज भारत में ही नहीं बल्कि देश विदेश में भी प्रसिð है कुछ वर्ष पूर्व किराना घराने की सशस्वी कलाकार श्रीमति गंगुबाई हंगल को शास्त्राीय गायन, नव भारत टाईम्स ग्रुप द्वारा स्वर्गीय प्रधान मंत्राी इन्दिरा गांधी की पुण्य तिथि पर अपने उत्सव में आयोजित किया गया था। 20वीं सदी से पहले कैराना घराने का संगीत देश विदेश में प्रसिð रहा। यशवी कलाकार गंगूबाई हंगल जो कि हुब्ली-बंगाल में रहती हैं से आशिर्वाद लेना आज के संगीतकार अपना सौभाग्य समझते हैं। कैराना घराना के पंडित भीमसेन जोशी जो कि आजकल सुनामी पिडितों की सहायता में लगे हुए हैं की भी चारों ओ से सराहना हो रही है।

बाद में यह घराना कर्णाटक और बंगाल में बस गया। इस घराना में ठुमरी गायन का विशेष महत्व है। आज भी गायिका मुनीर खातून बेगम ठुमरी में अपने धराने की परंपरा के अनुरूप हर स्वर पर ठहराव से अपनी गायकी का लोहा मनवा रही है।

कैराना घराना के बारे में मेगजीनों, पुस्तकों और इन्टरनेट वेबसाईटों में बहुत जानकारी हैं

कैराना का नवाब तालाब - उमर कैरानवी

कथन है कि सम्राट जहाँगीर के युग में कैराना में एक वैद्य बडे महान पुरूष जिनकी सेवा में जिन्नात दैत्यद् भी रहते थे व जिनके चर्चित होने में एक लकडी का बहुत महत्व है, वह लकडी आपको कैसे प्राप्त हुई इस बारे में कहा जाता है एक लकडहारा जंगल से काटी लकडियां लिये जा रहा था जिस पर वैद्य साहब की दृष्टि पडी, देखते हैं कि उसका सारा भीतरी शरीर दिखायी दे रहा है, जिस से लकडहारा अनभिज्ञ था। वैद्य साहब ने सभी लकडियों का मूल्य चुकाकर हर लकडी को उसके सर पर रख कर देखा विशेष लकडी प्राप्त होने पर शेष लकडीयां वापस कर दीं।
कुछ समय पश्चात सम्राट जहाँगीर की पत्नी के पेट में दर्द हुआ तो सभी वैद्यों के नाकाम होने पर कैराना के वैद्य से चिकित्सा कराने का सुझाव दिया गया, कैराना के प्रसिð वैद्य को बुलवाया गया, वैद्य साहब ने रानी के सर पर लकडी रख कर देखा,
फिर सम्राट से कहा कि रानी गर्भ से है व बच्चे ने उसकी अंतडी को अपनी मुटठी में भींच रखा है, इसे छुडाने की युक्ति के लिए इतनी राख मंगायी जाय कि रानी उस पर कुछ दूरी तक टहल सके व आरम्भ से कुछ दूरी छोडकर गोखरू कांटे मिली राख बिछायी जाये जिससे रानी को सुचित ना किया जाऐ, ऐसा ही किया गया। जब रानी उस राख पर चलने लगी, अचानक जैसे ही रानी के पैर के नीचे गोखरू कान्टा आया, रानी को झटका लगा जिससे बच्चे की पकड छूट गयी व रानी ठीक हो गयी। सम्राट बहुत प्रसन्न हुआ और कैराना को भेंट स्वरूप दे दिया। आगे कथन यूँ है कि इन्हीं वैद्य साहब के सुपुत्रा नवाब मुकर्रब खाँ ने कैराना में अपने सिधी प्राप्त पिता से उनके सेवक दैत्यों से बाग,कुयें और तालाब बनवाये। तालाब के बारे में कहा जाता है कि यह दैत्यों द्वारा एक ही रात्री में निर्मित है। एक ओर की दीवार शेष रहने सम्बंध में कहा जाता है कि किसी महिला के हाथ की आटा चक्की चलने की आवाज आने से कार्य अधूरा छोडकर चले गये कि भोर हो चुकी है।
इस बारे में ऐतिहासिक पुस्तक ‘तुज्क-ए-जहाँगीरी’ जो कि स्वयं सम्राट जहाँगीर की लिखी हुई है में लिखा है-- ‘‘ शेख बहा का पुत्रा शेख हसन जो बाल्य अवस्था से मेरी सेवा कर रहा है की सेवा से प्रसन्न होकर में ने ‘मुकर्रब खाँ’ की उपाधि दी’’--
सच भी यही है कैराना की जागीर उस परीवार को मिली थी जो पुश्तों से सम्राट की सेवा में था अर्थात यह जागीर नवाब के पिता को सम्राट अकबर ने दी थी, उपाधि ‘मुकर्रब खाँ’ जहाँगीर ने जिस को कैरानावासियों ने बिगाड कर मुकर्रब अली खाँ कर दिया है।
कैराना तालाब में स्वच्छ जल यमुना नदी से एक ओर से आता व दूसरी ओर से जाता था इस बाग के चारों और बाग था जिसकी सैर के पश्चात प्रशंसा में जहाँगीर ने अपने रोजनामचे ‘‘तुज़क-ए-जहाँगीरी’ में यूँ लिखा है कि--‘‘मेवादार वृक्ष जो कि विलायत में होते हैं यहाँ तक की पिस्ता के पौधे भी मौजूद थे’’
जहाँगीर अपनी कैराना यात्रा बारे में विस्तार से लिखते हैंः
21 तारीख को कैराना आने की सआदतमन्दी का इत्तफाक़ हुआ। पर्गना मुकर्रब खाँ का है। इस की आब और हवा मौतदिल और कैराना की ज़मीन अहलियत रखने वाली है। मुुकर्रब खाँ ने वहाँ बागात और इमारात बनाये हैं जब दो बार तारीफ बाग की गयी तो दिल को इस बाग की सैर करने की रगबत पैदा हुई, हफते के रोज जब तारीख 22 हो गई मैं घर वालों के साथ इस बाग की सैर से खुश हो गया हूँ। यह बाग तकल्लुफात से खाली और बुलन्द मरतबा व दिलनशीं है पक्की दीवार इसकी घेर में खींच दी गई और कियारियाँ को निकाला गया है। एक सौ चालीस बिगह ज़मीन है और बीच बाग एक हौज़ है लम्बाई दो सौ बीस गज़ है। दरमियान हौज़ के ‘सुफ्फा-ए-माहताबी’ चाॅदनी रात में घूमने फिरने के लिए चबूतरा है जोकि बाईस गज़ मुरब्बा है। और बाग में ऐसे फल लगे पेड भी हैं जो कि गर्मी में या सर्दी में मिलते हैं, बाग में मौजूद हैं। मेवादार दरखत जो कि ईरान और ईराक में होते हैं यहाँ तक कि पिस्ता के पौधे भी सरसब्जी की शक्ल में और खुश कद और खुश बदन सर्व ;सनूबरद्ध के पेड इस किस्म के देखे कि अब तक कहीं भी ऐसे खूबी और लताफत वाले सरू नहीं देखे गये। मैंने हुकम दिया कि सर्व के पेडों की गिनती की जाए। तीन सौ पेड थे। और हौज के आस पास मुनासिब इमारतों का पता भी चल रहा है।

The Tuzuk-i-jahangiri Or Memoirs Of Jahangir Vol II, pages 111-112


जक -ए- जहाँगीरी, अनुवादक: डॉक्टर मथुरालाल शर्मा
पृष्ठ 293 से 294,isbn : 8174871950 ,राधा publication, नई दिल्ली,

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